Poems

ईंटों का मकान

एक सुबह आंगन में धूप सेकते हुए
एक तितली को उड़ते देखा
देख उसे जाते डाल डाल
से पात पात
मैंने सोचा
क्या तितली का भी घर होता होगा?
होते मेरे भी पंख अगर
क्या मुझे सुहाते ईंटों के घर ?
ख्याल उड़ने का तो है
मुझे भी लुभाता
पर गिरने के डर से मन कुछ सहम सा जाता
कभी खुली आंखों से सपने देखती हूँ
उनमें दिखता है आसमान
नहीं जानती, क्या मैं भरूंगी अपनी उड़ान ?
या समेट लूंगी अपने पंखों को
दबा लूंगी इन ईंटों के बीच
रह जाएंगे बस आंगन, धूप, तितली
और ये ईंटों का मकान ।

One thought on “ईंटों का मकान

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *